Monday, October 2, 2023

    गांधी तुम चौकन्ने रहना !


गांधी तुम चौकन्ने रहना तेरे गुण ये गायेंगे

दिल मे नफरत की आंधी रख झुक झुक फुल चढ़ाएँगे

इनके मन की कुंठा को  तुम तो खूब समझते हो

गोली खाकर भी इनकी तुम रत्ती भर ना लरजते हो

तेरी लाठी लेकर तुमसे ये अपना हथियार बनायेगे

गांधी तुम चौकन्ने रहना तेरे गुण ये गायेंगे  | 


धर्म ध्वज की बात करेंगे और तिरंगे का अपमान 

पर इनकी मजबूरी देखो छीन ना सकते तेरा मान

क्षमा दया और प्यार की बंसी तुम तो खूब बजाते थे

पर उस दौर में भी ये नफरत की आग लगाते थे

इतिहास की बेदि पर बैठे ये उसकी धुनि जलाएंगे 

गांधी तुम चौकन्ने रहना तेरे गुण ये गायेंगे | 


क्रूर क्रोधी और कामहीन ये प्यार की भाषा क्या जाने

आत्ममुग्ध और आत्मप्रवंचित नीरसता को जीवन माने

सत्ता की चाहत मे जब ये धर्म के ठेकेदार बने

हिन्दू मुस्लिम करते करते चोर से चौकीदार बने 

अब सत्ता के ठेले पर हर ओर नफरत बिकवायेंगे

गांधी तुम चौकन्ने रहना तेरे गुण ये गायेंगे | 


दोष भी इनको क्या दे जब ये सोच ना अपनी गढ़ पाये

एक सदी के बाद भी जब ये देश की नब्ज न पढ़ पाये

इस देश का दिल ही सतरंगी है एक न भाषा एक न बोली

नानक और युसू भी मिलकर ईद मनायें और खेले होली

 देशभक्ति की आड़ में ये हर ओर नफरत फैलाएंगे

गांधी तुम चौकन्ने रहना तेरे गुण ये गायेंग | 


सच तो ये है बापू तुमसे आज भी खूब ये डरते हैं

जितने फूल चढ़ाते उससे दुगनी नफरत करते है

मंदिर मस्जिद को इन्होने अपना हथियार बनाया है 

इस देश को इन्होने बस नफरत करना सिखाया है 

अपनी नफरत की भट्टी मे ये खुद ही जल मर जायेंगे

गांधी तुम चौकन्ने रहना तेरे गुण ये गायेंगे | 

 दिल मे नफरत की आंधी रख झुक झुक फुल चढ़ाएँगे। 

Wednesday, August 18, 2021

आहट

जब बिना रीढ़ के अखबारों में राजा की बात हीं छपती हो,
जब कलम करे कोताही और खबरों की हेराफेरी हो,
तब समझो ये आहट है मुल्क के बद से बद्तर हो जाने की |

जब भेड़चाल में सारी भेड़े ऊँचे स्वर में हुंकार भरे,
जब लाखों मौतों पर भी न कोई शासन का प्रतिकार करे ,
तब समझो ये आहट है मुल्क के बद से बद्तर हो जाने की |

जब धर्म का चोला ओढ़े कोई साधु बड़ा व्यापारी हो,
जब मठ का कोई मठाधीश शासन में सत्ताधारी हो,
तब समझो ये आहट है मुल्क के बद से बद्तर हो जाने की |

जब अनपढ़ अवसरवादी राजा सिर्फ भूतकाल में बात करे,
और वर्तमान की चौखट पर भविष्य के साथ भी घात करे,
तब समझो ये आहट है मुल्क के बद से बद्तर हो जाने की |

जब मंदिर मस्जिद के मुद्दों पर सत्ता की दावेदारी हो,
जब सफेदपोशो के मंचो पर कोई टोपी या भगवाधारी हो,
तब समझो ये आहट है मुल्क के बद से बद्तर हो जाने की |

जब केसरिया और हरा रंग अलग अलग लहराते हों,
छत की मुंडेरों से लटके अपनी मज़हबी पहचान बताते हों, 
तब समझो ये आहट है मुल्क के बद से बद्तर हो जाने की |


Wednesday, October 2, 2019

2 अक्टूबर

हम दंगा ख़ूब मचाएँगे फिर गांधी गांधी गाएँगे 
तुम लाठी लेकर चलते रहना हम बम गोले मरवाएँगे,
भय भूख से घिसट घिसट कर आना तुम चौराहे पर 
केसरिया और हरा दिखा कर नारे तुमसे लगवाएँगे।

लोकतंत्र और लोकाचार दफ़न कर देना क़ब्रों में 
और अपनी अपनी बस्ती को मजहबी मुंडो से भरना
एक रंग का साफ़ा बांधे दूजे रंग से नफ़रत करना, 
मेरी अन्ध्भक्ति में बौद्धिकता जब घुटनो तक आजाएगी
ग़ैर मजहबी मानव तन की लिंचिंग तुमसे करवाएँगे ।

ख़बरों में लिपटा रंग बिरंगी एक काग़ज़ का चीथड़ा आता है 
उन ख़बरें बूनने वालों से हम अपनी चालीसा लिखवाएँगे 
चित्रहार और रंगोली का जो बुद्धू बक्सा आया था घर में 
उसी बुद्धू बक्से पर हम तुमको अपना जलवा दिखलाएँगे

इतिहास का सबक़ तुम्हारे पुरख़ो ने बतलाया था जो 
उस इतिहास की भारी अर्थी हम तुमसे ही उठवाएँगे
तुम तोता बनकर पढ़ते रहना हम अपना इतिहास पढ़ाएँगे

तुम हाथ पसारे बैठे रहना हम सब्ज़बाग़ दिखलाएँगे
तुम नौकरी नौकरी गाते रहना हम देशभक्ति समझाएँगे 
तुम चीख़ मरना बिना अस्पताल के हम बीमा करवाएँगे 
फिर चुनाव जब आएगा हम पाकिस्तान से लड़ने जाएँगे।


हिंदू मुस्लिम सिक्ख ईसाई आपस में लड़ बनो कसाई
इस नए नारे से नये भारत का नया नक़्शा बनवाएँगे

Wednesday, January 11, 2017

थोड़ी दूर

कुछ टूट रहा है मेरे अंदर ,कुछ रिश्तो की डोर भी छूट रही ,
राह चले चलने की  जिद में ,मंजिल भी पीछे छूट रही ।

खूब सहेजा था वर्षो तक ,वो यादें जाने किधर गई ,
कुछ यारो की भी यारी थी ,जो प्यालो में घुल कर बिखर गई ।

कुछ तेरा था जो ले आया मैं ,कुछ मेरा था जो छोड़ दिया ,
कुछ कसमे वादे भी लाया था ,उन सबको कब का तोड़ दिया ।

एक घड़ा था रिश्तो का जो ,भरकर भी खाली रहता था ,
आज उन्ही कुछ नए रिश्तो में ,खालीपन से भर जाता हूँ ।

कल होगा बेहतर कुछ अपना ,पर कितने आज गवाऊंगा ,
जो बिखर रहा है रोज निरंतर वो किस किस को बतलाऊंगा ।

ये माना जीना आसां  है ,पर सूनापन तन्हाई है ,
दिनभर बातें करता हूँ जिससे ,वो मेरी ही परछाईं है ।

एकांत मेरा प्यारा है मुझको ,पर इतना भी ना की निर्जन हो ,
एक छोटी सी बगिया हो अपनी , उसमे थोड़ा सा सावन हो ।




Tuesday, November 22, 2016

I am a Progressive Patriot


इंदौर-पटना एक्सप्रेस हादसे में मृतक संख्या बढ़कर 146 हो गई है।  मृतकों में से 110 लोगों की पहचान की जा चुकी है और 97 शव परिजनों को सौंप दिए गए हैं।

सब चुप हैं, कोई सवाल नहीं कोई सफाई नहीं , मुआवजा बटने लगा है जाँच कमेटी बना दी गई है ।

अजी ये भी मरना कोई मरना है , कौन लेगा इसकी जिम्मेवारी , ऐसी मौत से किसी के खून में उबाल आता है भला ? ये तो हमारे ही लोग हैं हम जैसे चाहे मार दे ट्रैन में मार दे या पूल गिरा कर । भूखो मार दे या शराब पिला कर । यात्री थे, यात्रा पर ही थे ,जहाँ उतरना था वहाँ से थोड़ा आगे चले गए । कोई बॉर्डर पर खड़े थोड़ी न थे की देशभक्त या शहीद का दर्ज दे दिया जाये , ट्रैन में भला कोई देशभक्त होता है ?  देशभक्त या तो बॉर्डर पर रहता है या Facebook  और Twitter पर । जबतक  बॉर्डर के आस पास आपकी छाती में पाकिस्तान का बुलेट न लगे आपको देशभक्त कैसे माना जायेगा ।

यद् रहे हमारा खून तभी ख़ौलता है जब पाकिस्तान की बॉर्डर पर कोई मरता है नेपाल बर्मा या भूटान पर नहीं , बाकि आपकी मर्जी आप जहाँ मर जाओ ट्रैन में मरो या अस्पताल में , दारू पि कर मरो या बिना पिए ही मर जाओ।  दंगो में मरो या दर्शन में, मंदिर के लाइन में मरो या ATM की लाइन में ,हिंदुस्तान में बनी गोली से मरो  या किसी तलवार से काट दिए जाओ । बड़ा सवाल ये है की मरे कैसे ? सड़क दुर्घटना का शिकार हुए ? ट्रैन हादसे में मर गए ? इसमें कौन सी बड़ी बात है ? कितने मरे?........ 150 बस !



पता करो मुआवजा बट गया  न। ... बेचारे कितने दिनों से इस मुआवजे का इंतजार कर रहे थे मनोकामना अब पूरी हुई। जो बच गए वो अफ़सोस मना रहे हैं। कोई बात नहीं फिर से टिकट लेना यात्रा करना फिर किसी दिन संयोग होगा। इसी रेलगाड़ी के बारे में सोचते रहे तो बुलेट ट्रैन कैसे लाएंगे। हमारे नेता हाइवे पर जेट touchdown करवा रहें है आप लोग रेल का रोना रोते  रहोगे ।  You Know ....... There is a word called "Progressive Patriot" and you just don't know it. ... and therefore, both literally and figuratively you unable to see the big picture. 



हम स्मार्ट सिटी बनाएंगे अब जिस सिटी में आप साँस नहीं ले पा रहे हो उसपर टाइम क्यों ख़राब करे । हम बुलेट ट्रैन चलाएंगे स्काई ट्रैन चलाएंगे ये अंग्रेजो की बनाई रेल लाइन पर अपना हुनर क्यों बर्बाद करे ।
अब तो हम जापान और चीन की सहायता ले ले कर जापान और चीन से आगे निकलने की राह पर हैं । Opss.. sorry चीन नहीं , चीन के झालर का तो अभी बहिस्कार किया था, आगे सोचा जायेगा फिलहाल नहीं ।

फिलहाल तो गिनिये कितने मरे, कौन गया, कौन नहीं गया, किसने कितना बांटा ,किसने नहीं बांटा । किसके शासन में कितनी पलटी और कितने मरे।

और हाँ सबसे जरूरी बात ट्रैन दुर्घटना में मरने वालो का धर्म और जाति नहीं देखी जाती  , तो उसकी अभी कोई जरूरत  तो नहीं है अगली बार से देखेंगे  -----------




Friday, April 1, 2016

दिल्ली मेट्रो और उसका साम्यवाद


साम्यवाद और सहिष्णुता का जीवंत उदहारण देखना हो तो दिल्ली मेट्रो की सवारी कीजिये एकदम सहिष्णु और उदारवादी समतामूलक समाज जिसकी कल्पना कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने भी नहीं की होगी। उम्र,धर्म,जाति,लिवास,पेशा और हैसियत इन सबका चूरमा बनकर एक शब्द बनता है "यात्रीगण"।अलग अलग उम्र , धर्म और जाति के गण अपने अलग अलग लिवास में अपने पेशे के प्रति निष्ठा को मजबूत करते हुए अपनी हैसियत के हिसाब से मेट्रो स्टेशन तक पहुंचते ही मेट्रो के पेट में समाने के लिए बेचैन दिखने लगते हैं यहाँ इन सब की एक ही पहचान होती है "यात्रीगण"। हुड्डा सिटी सेंटर से साकेत तक आने में ऐसा लगता है मेट्रो अपने गर्भावस्था का एक चरण पुरा करती है।

शाम के 6 बजे हुड्डा से MG रोड तक आते आते मेट्रो के डिब्बों का पेट पूरा फुल जाता है एकदम ठस, क़ुतुब मीनार आते आते  crawilling शुरू हो जाती है और साकेत आ कर ऐसा लगता है डिलीवरी हो गई , लोग फिसल कर सबसे पहले कार्ड लगाकर निकलने की होड़ में ऐसे भागते हैं जैसे अब दुबारा लौट कर नहीं आने वाले ,पर फिर सुबह होते ही जिस तेजी के साथ फिर प्रवेश करते हैं तो लगता है जैसे इन 12,13 घंटे की विरह बड़ी मुश्किल से गुजारी है।ठीक यही नजारा नोएडा सिटी सेंटर से राजीव चौक के बिच होता है।पर इनसबके बीच जो सबसे अच्छी बात होती है वो है अनुशासन।स्वनियंत्रित और स्वअनुशासित लोगो की भीड़ एक दूसरे से बिना कोई भेद भाव और बिना किसी परेशानी के बस चलती रहती है।सब व्यस्त हैं अपने अपने स्मार्टफोन के साथ, कान में हेडफोन लगाए हुए ,बिना एक दूसरे से बात किये हुए ,इनमे कुछ ही मेरे जैसे असमाजिक होंगे जो इस सब को किसी नजरिए से देखते होंगे ।

बाकि किसी भी यातायात के माध्यम में आप साथ चल रहे लोगो को उनके एकदूसरे से रिश्ते की पहचान कर सकते हैं पर मेट्रो में रिश्ते पहचानना मुश्किल है।अरे जनाब अनुशासन का ऐसा नजारा आपको मिल ही नहीं सकता की बीवियाँ भी बिना कुछ बोले पूरी यात्रा कर लेती है, कुछ अपवाद हर जगह होते हैं पर बीवियों को ऐसा अनुशासन सिखाने का काम अगर कोई कर सकता है तो इससे नायाब चीज आपको शायद ही देखने को मिले ।

हर स्टेशन का अपना अलग नजारा है जैसे साकेत के बाहर चबूतरे पर एक लाइन में बैठे लोगो का कारण आज तक नहीं समझ पाया आखिर किसके इंतजार में बैठे है।वहीं रेसकोर्स और जोरबाग स्टेशन देख कर लगता है यहाँ से कोई उतरता चढ़ता भी है या नहीं ? अगर कमाई के हिसाब से तन्खाह बटने लगे तो यहाँ के कर्मचारी को सुबह शाम की चाय मिल जाये वही बहुत है बाकि रोटी का खर्चा केंद्रीय सचिवालय स्टेशन से लेना पड़ेगा।राजीव चौक के कर्मचारी तो दुबई से एमिरेट्स का डेली पैसेंजर  पास बनाकर नौकरी कर रोज वापस दुबई जा सकते हैं।पर हाँ फिर भी कुछ बदलाव की जरुरत अभी भी है दिल्ली मेट्रो को बेहतर बनाने में।

⇛ मसलन, चढ़ने के लिए एस्केलेटर लगे हैं और उतरने के लिए सीढ़ियाँ मगर सीढ़ियों पर जिस कदर का सन्नाटा पसरा रहता है वहां गद्देदार स्लाइडर लगा देना चाहिए ।

⇛ बिना बेंच वाले डब्बे लगाने चाहिए ताकि सब खड़े होकर ही यात्रा करे इसके बिना मेट्रो के अंदर सम्पूर्ण साम्यवाद की कल्पना मुश्किल है वरना शुरुवात स्टेशन पर मेट्रो के दरवाजे खुलने के बाद लोग ऐसे दौड़ते है जैसे बाड़ा तोड़ कर भागी भैंस।सबको कुचलते मसलते हुए जिसको वृद्ध और महिलाओं की सीट छोड़कर सीट मिल गई उसके चेहरे का सुकून देखते बनता है ।
 
⇛ मेट्रो में खड़े हुए अपनी यात्रा के दौरान योग कैसे करे इसके निर्देश लगा देने चाहिए । मसलन अगर आपको बैठने की जगह न मिले तो दोनों हाथो से दो लटके हुए हैंडल को पकड़ कर तेजी से साँस बाहर निकालें और पेट को भीतर की ओर खींचें। साँस को बाहर निकालने और पेट को धौंकनी की तरह पिचकाने के बीच सामंजस्य रखें।इससे ज्यादा से ज्यादा शुद्ध हवा आपके फेफड़ों में जाएगी क्योकि मेट्रो से बहार निकलते ही फिर आपका सामना Ph level से होना होता है ।

⇛  सांसो पर नियंत्रण करने के लिए अपने सांसो को एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन के बिच के अनाउंसमेंट के बिच रोक कर रखे ।शुरुवात छोटी दुरी के स्टेशन से करे ।

वैधनिक चेतवानी : गुड़गावं जाने वाले अर्जनगढ़ से गुरु द्रोणाचार्य के बीच श्वास नियंत्रण न करे वरना आपकी सांसे उखड सकती हैं ।

आप भी अपने सुझाव जोड़ सकते हैं ।कार छोडिए और मेट्रो के साथ साम्यवाद फैलाइये । 

Monday, July 20, 2015

किताब या धर्मग्रन्थ !


जो इंसानो की कदर करना भूल जाता है धर्म की रक्षा पर निकल पड़ता है ।जिस तरह गाय पालने वालो से ज्यादा गो रक्षा करने वाले हो गए है । फेसबुक और ट्विटर पर राष्ट्र्भक्त दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं लेकिन इनमे से सेना में कोई नहीं है ।अपनी छद्म राष्ट्रभक्ति और धार्मिकता को अपने ड्राइंग रूम में बैठ कर एकदूसरे को निचा दिखाने का नया और सुलभ हथियार मिल गया है ।

हर सवाल के जवाब में इतिहास की कब्र खोद तथाकथित महापुरषो की अस्थियां दो मिनट में आपके दीवाल पर लटका दी जाएँगी ,अब इन्हे कोई ये क्यों नहीं समझाता की अस्थियां विसर्जित करने के लिए होती हैं वितरित करने के लिए नहीं |

इतिहास दफ़न करने के लिए लिखा जाता है कुछ सिखने के लिए नहीं ।इतिहास हमेशा युद्ध का ही क्यों लिखा जाता है ? ताकि आपको अगले युद्ध के लिए तैयार किया जा सके ? अगर इतिहास से सीखना होता तो द्धितीय  विश्वयुद्ध का नाम नहीं होता । हाँ उसी युद्ध को लड़ने के अलग तरीके जरूर ढूंढ लिए गए कोई धर्म के नाम पर लड़ रहा है तो कोई आतंकवाद के नाम पर। जो जीतेगा उसका इतिहास फिर लिखा जायेगा ।

जिस दिन इतिहास दफ़न करेंगे उस दिन इंसानियत के रास्ते का पहला कदम होगा वर्ना हर उस कदम को आपका इतिहास अपनी कब्र में खिचता रहेगा । सबकुछ साथ लेकर लुढ़कना आसान है पर चढ़ाई चढ़ने के लिए एक एक कर चीजो को छोड़ना पड़ता है । चुनाव तो आपका ही होगा अपने इतिहास की पोटली के साथ लुढ़कना है या अपने इतिहास के बोझ से हल्का होते हुए आगे चढ़ना है ।बस इतना ध्यान  रखियेगा की जितने बार अपने इतिहास के कब्र  में जायेंगे आपकी ऐतिहासिक पोटली और  भारी  होती जाएगी ।

दुनिया में लड़ाई कभी धार्मिक और अधार्मिक लोगो के बीच नहीं हुई है जब भी हुई है दो धर्मो के बीच हुई है ।  धार्मिक बनाना दुनिका का सबसे आसान काम है , बनिए धार्मिक पर एक किताब के साथ नहीं | अपने धर्म की किताब बदलते रहिये जब पिछले 1000 सालो में सबका पहनावा बदल गया ,खान पान बदल गया ,रहने से लेकर आने जाने का तरीका बदल गया, यहाँ तक की भाषा बदल गई हर 10 सालो में स्कूल कॉलेज का सीलेबस बदल जाता है पर सबके अपने अपने धर्म की किताब कभी नहीं बदली ।

ऐसा लगता है की उस आखरी लेखक की मौत के बाद कोई उससे अच्छा लेखक आज तक पैदा ही नहीं हुआ |  अच्छा है , नहीं बदलना चाहते है तो एक दूसरे से एक्सचेंज कर लीजिये , हो सकता है आपको अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त होने का तरीका मिल जाये ।

किसी पर सवाल करना उसका अपमान करना नहीं होता बल्कि उसके साथ अपनी सहमति बनाने की कोशिश होती है फिर धर्म पर सवाल करने के नाम पर सारे असहज क्यों महसूस करने लगते है । क्यों धर्म की रक्षा के नाम पर तलवार की जरुरत होती है ? और क्यों रक्षा की जरुरत भी है ? क्यों कोई धर्म खुद के आडम्बरो से असहमत होने की इजाजत नहीं देता ? दो धर्मो को जब आपस में लड़ने का मौका नहीं मिलता तो एक ही धर्म में कई गुट हो जाते है फिर वो आपस में लड़ने लग जाते है ।

धर्म छोड़ना थोड़ा मुश्किल काम है इसके लिए आपको सारे भुत और भगवान के भय से मुक्त होना पड़ता है अपनी धार्मिक सोच से मुक्त होना पड़ता है । धर्मग्रन्थ को किताब समझ कर पढ़ना पड़ता है पूजनीय समझ कर नहीं , उसपर सवाल करने पड़ते है। कोई धर्म लेकर पैदा नहीं होता बल्कि पैदा होने के बाद धर्म चिपकाया जाता है और फिर उसे उखाड़ना बड़ा मुश्किल होता है ।धर्म छोड़ने का मतलब ये नहीं एक को त्याग कर दूसरे को अपना लिया, ये तो बस इस नाव से उस नाव में बैठने जैसा है । धर्म छोड़ने का मतलब खुद तैरना सीखना है किसी नाव की सवारी नहीं।

धार्मिक नहीं होना मतलब अधार्मिक नहीं होता ,हालांकि अधार्मिक जैसा शब्द भी धार्मिक लोगो ने ही ईजाद किया है ।  धार्मिक होना भी बुरा नहीं है पर अपने अपने धर्म की किताब हर 10  सालो में आपस में बदल लिया कीजिये ठीक उसी तरह जैसे स्कूलों सीलेबस बदल जाता है । या फिर इस झंझट से अच्छा है अधार्मिक हो जाइये और किताबो को किताब की तरह पढ़िए धर्मग्रन्थ की तरह नहीं । शायद एक दूसरे को धार्मिक पहचान के साथ नहीं उसकी पहचान से देखना सिख सकते है ।